हिमाचल की बोलियां : चार कोस पर बदले पाणी, आठ कोस पर बदले वाणी

हिमाचल की भाषा-बोलियां : चार कोस पर बदले पाणी, आठ कोस पर बदले वाणी

चम्बयाली

जिले में पांच विभिन्न बोलियां बोली जाती हैं

जिले में पांच विभिन्न बोलियां बोली जाती हैं

भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से चम्बा राज्य अत्यधिक रोचक है। क्योंकि यह पूर्णतया पर्वतों में स्थित है, यहां पर विभिन्न बोलियों के स्थायी होने के पूरे साधन मौजूद हैं। इस जिले में पांच विभिन्न बोलियां बोली जाती हैं। उन्हें स्थूल रूप से निम्र भागों में बांटा जा सकता है: उत्तर-पश्चिम में चुरही, पांगी तहसील के उत्तर में पंगवाली, भट्टियात तहसील में भाटियाली, भरमौर क्षेत्र के दक्षिण-पूर्व में भरमौरी या गद्दी क्योंकि इस क्षेत्र में गद्दी कबीले के लोग रहते हैं, दक्षिण-पश्चिम में चम्बा शहर के चारों ओर जो बोली प्रयुक्त होती है वह चम्बयाली है। साधारणतया इन सभी बोलियों को चम्बयाली कहा जाता है।

लाहौल-स्पीति और किन्नौर में जो भाषाएं बोली जाती हैं उन्हें तिब्बती-हिमालयन भाषा कहते हैं और इस भाषा को बोलने वालों की बस्तियां कुल्लू में भी हैं।

किन्नौरी

किन्नौरी बोली जिसे होमस्कद भी कहते हैं, किन्नौर के लगभग 75 प्रतिशत लोगों की मातृ-भाषा है

किन्नौरी बोली जिसे होमस्कद भी कहते हैं, किन्नौर के लगभग 75 प्रतिशत लोगों की मातृ-भाषा है

किन्नौरी बोली जिसे होमस्कद भी कहते हैं, किन्नौर के लगभग 75 प्रतिशत लोगों की मातृ-भाषा है। जनसंख्या के विभिन्न वर्गों द्वारा कम से कम नौ विभिन्न बोलियां बोली जाती हैं। इनमें से एक संगनूर है जो कि पूह तहसील के एक अकेले गांव संगनूर में बोली जाती है। तिब्बत की सीमा के निकट के गांवों में पश्चिमी तिब्बत की बोलियां बोली जाती हैं। इस बोली जाने वाली तिब्बतन का सीमा विस्तार केवल नासंग, कुने, चारंग और निकटवर्ती तिब्बत तक है। जंगीयम बोली मोरंग तहसील के जंगी लिप्पा और असंग गांवों में बोली जाती है। शुम्को बोली पूह तहसील के कनम, लबरांग, स्पिलो, शाइसो, टेलिंग एवं रश कलंग गांवों में बोली जाती है। अनुसूचित जातियां ऐसी भाषा बोलती हैं जो कि आसपास के किन्नौर के क्षेत्रों की भाषा से मिलती हैं। कुल्लू के मलाणा गांव की भाषा मलाणी है जिसे किन्नौरी वर्ग में रखा गया है।

लाहौली

लाहौल और स्पीति में चार प्रमुख बोलियां बोली जाती हैं

लाहौल और स्पीति में चार प्रमुख बोलियां बोली जाती हैं

लाहौल और स्पीति में चार प्रमुख बोलियां बोली जाती हैं। ये इस प्रकार हैं- भोटी, गेहरी, मनचल और चांगसा। प्रत्येक बोली एक-दूसरे से पर्याप्त भिन्न है परन्तु फिर भी सारे प्रदेश में बोली और समझी जाती है। भोटी (तिब्बती) स्पीति, भागा और चन्द्रा घाटियों में बोली जाती है। गेहरी केलांग, मनछत और चांगसा बोलियां चिनाव की घाटी में बोली जाती हैं। केवल भोटी की ही लिपि और व्याकरण है जबकि अन्य तीनों ही मात्र बोलियां हैं। यह मठों में लामाओं द्वारा पढ़ाई जाती है। यह गौरव का विषय है कि यहां के लोग सांस्कृतिक दृष्टि से इतने भिन्न होते हुए भी थोड़ी-बहुत हिन्दी समझते हैं।

पहाड़ी भाषा के जन्म के विषय में भाषा-शात्रियों में बहुत मतभेद है। जी.ए. ग्रियर्सन इसका जन्म दर्दी और पैशाची से मानते हैं परन्तु भोलानाथ तिवारी और डॉ. गोविन्द चातक का मानना है कि इस भाषा का विकास शौरसेनी नागर अपभ्रंश से हुआ है। शौरसेनी अपभ्रंश ही ब्रज, हरयाणी, पंजाबी, राजस्थानी और गुजराती की जननी है। पहाड़ी की एक ओर विशेषता यह है कि उसमें यहां के मूल निवासी कोल-किरातों की भाषा का विचित्र संयोग हुआ है। इस मिश्रण से इस भाषा में एक ऐसी विशेषता आ गई है जिसके परिणामस्वरूप यह हिन्दी और पंजाबी से पर्याप्त भिन्न हो गई हैं।

भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से पहाड़ी भाषा की अपनी कुछ विशेषताएं हैं जो कि इसे अपनी पड़ोसी भाषाओं से अलग करती है। कुछ भाषा वैज्ञानिकों का कथन है कि भले ही पहाड़ी भाषा हिन्दी, डोगरी और पंजाबी भाषाओं से घिरी हुई है फिर भी यह राजस्थानी भाषा के भी निकट है। इसका मुख्य कारण यह बताया जाता है कि राजस्थान और पहाड़ी क्षेत्रों में किसी समय एक ही जाति के लोग अर्थात खश, गुज्जर राजपूत रहते थे। ऐतिहासिक तथ्य कुछ भी रहे हों परन्तु यह एक तथ्य है कि पहाड़ी भाषा की कुछ विशेषताएं हैं, जिन्हें वैज्ञानिक विकासक्रम में अनदेखा नहीं किया जा सकता।

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