धौलाधार पर्वत श्रृंखला में स्थित 52 शक्तिपीठों में से एक “श्री ब्रजेश्वरी देवी” मंदिर

धौलाधार पर्वत श्रृंखलाओं में बसी “माँ ब्रजेश्वरी”

 कांगड़ा का मां ब्रजेश्वरी शक्तिपीठ धाम

कांगड़ा का मां ब्रजेश्वरी शक्तिपीठ धाम

“देवभूमि हिमाचल” जिसके कण-कण में सदियों से देवी-देवता का वास है। वहीं इस देवभूमि में मां भवानी के 52 शक्तिपीठों में से एक-दो नहीं बल्कि आधा दर्जन शक्तिपीठ हैं। हिमाचल प्रदेश के सबसे पड़े जनपद कांगड़ा में धौलाधार की पर्वत श्रृंखला की गोद में स्थित श्री ब्रजेश्वरी देवी मंदिर प्रमुख शक्तिपीठों में शुमार है। यह शक्तिपीठ नगरकोट वाली देवी के नाम से भी जाना जाता है। महाभारत काल के त्रिगर्त नरेश सुशर्मन का सुशर्मपुर किला यहां के अजेय दुर्ग की प्रसिद्धि के कारण बाद में नगरकोट कहलाया। कोट शब्द दुर्ग या किला का अर्थ होता है और नगर से तात्पर्य यहां सुख-सुविधा सम्पन्न शहर से है, जो कि उस काल में विशाल त्रिगर्त राज्य का मुख्यालय था। यही स्थल आजकल कागंड़ा के नाम से जाना जाता है। जिसकी ख्याति देवी ब्रजेश्वरी की मान्यता के कारण दूर-दूर तक फैली है। यह स्थान जिला मुख्यालय धर्मशाला से 19 किलोमीटर और शिमला से 260 किलोमीटर दूर है। यह चारों ओर से सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। पठानकोट-जोगिन्द्रनगर रेलवे लाईन पर कांगड़ा मन्दिर नामक नजदीक रेलवे स्टेशन मन्दिर से 2 किलोमीटर की दूरी पर है।

 कांगड़ा का मां ब्रजेश्वरी शक्तिपीठ धाम

कांगड़ा का ब्रजेश्वरी शक्तिपीठ मां का एक ऐसा धाम है जहां पहुंच कर भक्तों को अदभुत शांति का अनुभव होता है कांगड़ा का नगरपुर धाम, मां के शक्तिपीठों में से एक मां ब्रजेश्वरी देवी के धाम के बारे में पौराणिक कथा के अनुसार अपमानित हो सती देवी द्वारा यज्ञ कुंड में प्राण त्यागने और शिव द्वारा सती-शव को कन्‍धे पर लेकर त्रिभुवन में घूमने वाली अवस्था देखकर देवी-देवता विनाश की शंका से भयभीत हो गये। उन्‍होंने भगवान विष्णु से इस संकट को दूर करने की प्रार्थना की। तब जगत स्वामी विष्णु ने सती के शव को सुदर्शन चक्र से इक्यावन भागों में खण्ड -विखण्ड किया। जहां-जहां सती के ये खण्डित अंग गिरे,वहां-वहां शक्तिपीठ स्थापित हुए। कहा जाता है कि ब्रजेश्वरी धाम में सती का बायां स्तन गिरा था। यह 52 शक्तिपीठों में से एक है जहां तीन धर्मों के प्रतीक के रूप में मां की तीन पिण्डियों की पूजा होती है। कहते हैं जो भी भक्त मन में सच्ची श्रद्धा लेकर मां के इस दरबार में पहुंचता है उसकी कोई भी मनोकामना अधूरी नहीं रहती।

लोगों ने देवी के पिण्डी रूप में दर्शन पाए, देवी जाग्रत शक्ति से सुविख्यात यह स्थान

सती के शरीर के अंग यहां गिरने का पहले किसी को मालूम नहीं था। एक बार कागंड़ा में बहुत बड़ा अकाल पड़ा। उससे बचने के लिये लोगों ने मिल कर शक्ति की आराधना की। तब शक्ति ने किसी भक्त को स्वप्न में दर्शन देकर बतलाया कि जब मेरी सती रूप में मृत देह को शिवजी कन्धों पर लेकर घूम रहे थे, उस समय विष्णु चक्र से कट कर सती शरीर का वामांग उस स्थान पर गिरा है। वहां मैं पिण्डी रूप में विद्यमान हूं। तुम मेरी पिण्डी की विधिवित्‌ स्थापना करो। उससे क्षेत्र का संकट दूर हो जाएगा। उसी निर्देश के अनुसार लोगों ने देवी के पिण्डी रूप में दर्शन पाए। यहां देवी की समुचित विधान से प्रतिष्ठा की। देवी की कृपा से अकाल का संकट टल गया और यह स्थान देवी की जाग्रत शक्ति से सुविख्यात हुआ। उसी काल में जालन्धर नामक दैत्य ने इस क्षेत्र में उत्पात मचाना शुरू किया। पीड़ित होकर लोग देवी मां की शरण में गये। देवी ने बज्र के समान कठोर निश्चय धारण करके जालन्धर दैत्य का वध् किया। इसलिये लोक में देवी मां ब्रजेश्वरी नाम से प्रसिद्ध हुई। यह भी धारणा है कि सती का वामांग यहां गिरकर प्रस्तर ब्रज में परिवर्तित होने के कारण देवी ब्रजेश्वरी कहलायी। जोकि देवी की पिंडी के रूप में पूजित है।

मकर संक्रांति की महिमा

जनश्रुति है कि बज्रमय जालंधर दैत्य का संहार करने पर माता की कोमल देह पर अनेक चोटें आ गई थीं। इसका उपचार देवताओं ने जख्मों पर घी, मक्खन लगाकर किया था। आज भी उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए संक्रांति को माता की पिण्डी पर पांच मण देसी घी, मक्खन चढ़ाया जाता है, उसी के ऊपर मेवे और फलों को रखा जाता है। यह भोग लगाने का सिलसिला सात दिन तक चलता है। फिर भोग को प्रतिदिन श्रद्धालुओं में प्रसाद स्वरूप बांट दिया जाता है।

दन्त कथा में यह भी कहा जाता है कि जालन्धर दैत्य की विशाल देह का जहां कान पड़ा था, उस स्थान पर बाद में गढ़ अर्थात्‌ किला बना। इस प्रकार कान गढ़ से कागंड़ा शब्द की निष्पत्ति हुई है।

ब्रजेश्वरी देवी मंदिर के तीन गुंबद, तीन धर्मों के प्रतीक

माता ब्रजेश्वरी का यह शक्तिपीठ अपने आप में अनूठा और विशेष है क्योंकि यहां मात्र हिन्दू भक्त ही शीश नहीं झुकाते

लोगों ने देवी के पिण्डी रूप में दर्शन पाए, देवी जाग्रत शक्ति से सुविख्यात

लोगों ने देवी के पिण्डी रूप में दर्शन पाए, देवी जाग्रत शक्ति से सुविख्यात

बल्कि मुस्लिम और सिख धर्म के श्रद्धालु भी इस धाम में आकर अपनी आस्था के फूल चढ़ाते हैं कहते हैं ब्रजेश्वरी देवी मंदिर के तीन गुंबद इन तीन धर्मों के प्रतीक हैं। पहला हिन्दू धर्म का प्रतीक है, जिसकी आकृति मंदिर जैसी है तो दूसरा मुस्लिम समाज का और तीसरा गुंबद सिख संप्रदाय का प्रतीक है।

तीन गुंबद वाले और तीन संप्रदायों की आस्था का केंद्र कहे जाने वाले माता के इस धाम में मां की पिण्डियां भी तीन ही हैं। मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित यह पहली और मुख्य पिण्डी मां ब्रजेश्वरी की है। दूसरी मां भद्रकाली और तीसरी और सबसे छोटी पिण्डी मां एकादशी की है। मां के इस शक्तिपीठ में ही उनके परम भक्त ध्यानु ने अपना शीश अर्पित किया था। इसीलिए मां के वो भक्त जो ध्यानु के अनुयायी भी हैं वो पीले रंग के वस्त्र धारण कर मंदिर में आते हैं और मां का दर्शन पूजन कर स्वयं को धन्य करते हैं।

मां ब्रजेश्वरी देवी केशक्तिपीठ में प्रतिदिन पांच बार मां की आरती

मां ब्रजेश्वरी देवी के इस शक्तिपीठ में प्रतिदिन मां की पांच बार आरती होती है। सुबह मंदिर के कपाट खुलते ही सबसे पहले मां की शैय्या को उठाया जाता है। उसके बाद रात्रि के श्रृंगार में ही मां की मंगला आरती की जाती है। मंगला आरती के बाद मां का रात्रि श्रृंगार उतार कर उनकी तीनों पिण्डियों का जल, दूध, दही, घी, और शहद के पंचामृत से अभिषेक किया जाता है। उसके बाद पीले चंदन से मां का श्रृंगार कर उन्हें नए वस्त्र और सोने के आभूषण पहनाएं जाते हैं. फिर चना पूरी, फल और मेवे का भोग लगाकर संपन्न होती है मां की प्रात: आरती।

यहां, दोपहर की आरती और भोग चढ़ाने की रस्म को गुप्त रखा जाता है। दोपहर की आरती के लिए मंदिर के कपाट बंद रहते हैं, तब श्रद्धालु मंदिर परिसर में ही बने एक विशेष स्थान पर अपने बच्चों का मुंडन करवाते हैं। मान्यता है कि यहां बच्चों का मुंडन करवाने से मां बच्चों के जीवन की समस्त आपदाओं को हर लेती हैं। मंदिर परिसर में ही भगवान भैरव का भी मंदिर है, लेकिन इस मंदिर में महिलाओं का जाना पूर्ण रूप से वर्जित हैं। यहां विराजे भगवान भैरव की मूर्ति बड़ी ही खास है। कहते हैं जब भी कांगड़ा पर कोई मुसीबत आने वाली होती है तो इस मूर्ति की आंखों से आंसू और शरीर से पसीना निकलने लगता है।

मंदिर में माँ की पूजा अर्चना और सेवा

ब्रजेश्वरी मंदिर में देवी की पूजा प्राचीनकाल से तांत्रिक विधि से होती थी। वर्तमान में ब्रजेश्वरी मंदिर में पूजा ब्रह्ममुहूर्त में स्नान व श्रृंगार के साथ की जाती है और पंच मेवा का भोग लगाया जाता है तथा इसके पश्चात आरती होती है। मध्याह्न चावल और दाल का भोग लगाकर आरती होती है। सायंकालीन आरती दूध, चने और मिठाई का भोग लगाया जाता है। यहां चैत्र और आश्विन नवरात्रों तथा श्रावण मास में मेलों को मनाने की प्रथा का अनूठा प्रचलन है। चैत्र मास के नवरात्रों में तो ब्रजेश्वरी वृन्दावन के श्रद्धालु पीत वस्त्र पहनकर माता के मंदिर में शीश नवाने आते हैं। वह ध्यानु भक्त को अपने कुल का वंशज मानते हैं।

लाल चंदन, फूल व नए वस्त्र पहनाकर किया जाता है मां का श्रृंगार

कहते हैं एकादशी के दिन चावल का प्रयोग नहीं किया जाता है, लेकिन इस शक्तिपीठ में मां एकादशी स्वयं मौजूद है इसलिए यहां भोग में चावल ही चढ़ाया जाता है सूर्यास्त के बाद इन पिण्डियों को स्नान कराकर पंचामृत से इनका दोबारा अभिषेक किया जाता है। लाल चंदन, फूल व नए वस्त्र पहनाकर मां का श्रृंगार किया जाता है और इसके साथ ही सांय काल आरती संपन्न होती है। शाम की आरती का भोग भक्तों में प्रसाद रूप में बांटा जाता है। रात को मां की शयन आरती की जाती है, जब मंदिर के पुजारी मां की शैय्या तैयार कर मां की पूजा अर्चना करते हैं।

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