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हिमाचल : “शिशु के जन्म से लेकर नामकरण व मुंडन रीति-रिवाज”

शिशु के जन्म से लेकर नामकरण व मुंडन संस्कारों तक हिमाचल के रीति-रिवाज एवं शिष्टाचार

शिशु के जन्म से लेकर नामकरण व मुंडन संस्कारों तक हिमाचल के रीति-रिवाज एवं शिष्टाचार

जिस प्रकार किसी व्यक्ति की आदतें और उसकी अभिव्यक्ति का ढंग उसके चरित्र के द्योतक हैं, उसी प्रकार किसी

प्रदेश में मनाए जाने वाले जन्म संस्कारों से, जिसमें शिशु के जन्म से पहले गर्भवती महिला के लिए होते हैं नियम

प्रदेश में मनाए जाने वाले जन्म संस्कारों से, जिसमें शिशु के जन्म से पहले गर्भवती महिला के लिए होते हैं नियम

समाज में प्रचलित रीति-रिवाज उसकी नैतिक चेतना के प्रतीक होते हैं। इस प्रकार रीति से अभिप्राय स्वैच्छिक क्रियाओं के उन मानदंडों से है जोकि किसी राष्ट्रीय अथवा जनजातीय समूह में प्रचलित हो जाते हैं। हिमाचल प्रदेश के रीति-रिवाजों की प्रमुख विशेषता उनकी अपेक्षाकृत कठोरता एवं अपरिवर्तनशीलता है। पहले इस क्षेत्र में प्राचीन परंपराओं के प्रचलन के लिए आवश्यक सभी परिस्थितियां मौजूद रही हैं, यथा-प्रदेश का मैदानी से अलग-थलग और दुर्गम होना, लोगों का रुढ़िवादी स्वभाव, विदेशी घुसपैठ में कठिनता और आवागमन के साधनों की कमी। परन्तु अब काफी बदलाव आया है। लेकिन हिमाचल के अपने रीति-रिवाज एवं शिष्टाचार अपना विशेष महत्व रखते हैं। जो प्रदेश के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग हैं। यहां की अपनी खास परंपराएं व रीति-रिवाज हैं जो बरसों से चली आ रही परंपराओं, संस्कारों और रीति-रिवाजों को आज भी जीवित रखे हुए हैं।

इस बार हम आपको रूबरू करवा रहे हैं प्रदेश में मनाए जाने वाले जन्म संस्कारों से, जिसमें शिशु के जन्म से पहले गर्भवती महिला के लिए क्या नियम होते हैं तथा उनके परिवार वालों के लिए क्या नियम होते हैं। शिशु के होने पर, जन्म संस्कार, नामकरण संस्कार, मुंडन संस्कार और यज्ञोपवती, यानि प्रदेश में इस संस्कार की कितनी महत्ता है और हिमाचल में बरसों से चली आ रही इस परंपरा को किस प्रकार विधि-विधान के साथ निभाया और मनाया जाता है।

जन्म के संस्कार

प्राचीनकाल से यह संस्कार समाज में प्रचलित रहे हैं यद्यपि आजकल इनमें बहुत से परिवर्तन हो रहे हैं, हो चुके हैं। बदलते वक्त के साथ बहुत कुछ बदलता नजर आ रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन इसके बावजूद भी हिमाचल में शिशु के जन्म संबंधी संस्कार अत्यंत दर्शनीय एवं विशिष्ट स्थानीय रंगत लिए हुए हैं। पत्नी की गर्भावस्था में पति किसी जीव की हत्या नहीं करता वहीं मांस खाने पर कोई प्रतिबंध नहीं रहता। एक गर्भवती महिला को जलते हुए स्थान, नदी, वन, और सुनसान जगह पर जाने की मनाही होती है। उसे मृत व्यक्ति का चेहरा नहीं देखना चाहिए। वहीं अगर कहीं किसी व्यक्ति की मृत्यु हुई हो तो वहां गर्भवती महिला को तब तक जाना मना होता है जब तक की वहां धर्मशांति नहीं होती, यानि अंतिम क्रिया पूरी नहीं हो जाती। धार्मिक अवसरों पर जहां पति-पत्नी को मिलकर विभिन्न धार्मिक कृत्य करने होते हैं जिनमें आमतौर पर गठबंधन किया जाता है, गर्भवती महिला के साथ से धार्मिक कृत्य नहीं किए जाते। वहीं कुछ क्षेत्रों में तो महिला की नाक की बाली, सिर पर धारण किए जाने वाले आभूषण और कड़े पिघला कर नया आभूषण गर्भवती के लिए बनवाया जाता है। गर्भावस्था में उसे सूर्य अथवा चंद्र ग्रहण को देखने के लिए भी मनाही होती है। वहीं जहां अरबी की खेती की होती है उस खेत में जाने के लिए भी गर्भवती महिला को मनाही होती है।

शिशु के जन्म के समय घर की निचली मंजिल में रखा जाता है गर्भवती स्त्री को

शिशु के होने पर, जन्म संस्कार, नामकरण संस्कार, मुंडन संस्कार और यज्ञोपवती, यानि प्रदेश में इस संस्कार की अपनी महत्ता है शिशु के जन्म के समय स्त्री को घर की निचली मंजिल में रखा जाता है। ऐसा उसे पहाड़ों की सर्दी और ठंडी हवाओं से बचाने के लिए किया जाता है। पहले महिला ओवरे में यानि कच्चे घरों की निचली मंजिल में रखा जाता था। लेकिन अब पुराने घर बहुत कम ही देखने को रह गए हैं। गांव व दूर-दराज के क्षेत्रों में आज भी प्रशिक्षित दाइयों के अभाव में ग्रामीण क्षेत्रों में अनुभवी वृद्ध महिलाएं शिशु-जन्म में सहायता करवाती हैं। सास व परिवार की अन्य महिलाएं भी इस अवसर पर उपस्थित रहती हैं। बच्चे और मां को जोडऩे वाली नाल को दाई चांदी के सिक्के अथवा आभूषण से काटती है। इसके पश्चात अन्य स्त्रियों की सहायता से मां और शिशु को स्नान करवाया जाता है और मां को नए वस्त्र पहनाए जाते हैं।

प्रसव के तुरंत बाद मां को पीना होता है घी और गुड़ से बना मिश्रण

प्रसव के तुरंत बाद मां को घी और गुड़ से बना मिश्रण पीना होता है। जिसे गुरनी कहते हैं, वह मीठा दलिया खाती हैं और ताकत पाने के लिए दूध और घी मिश्रण का सेवन भी

हिमाचल के पूर्वी क्षेत्रों में बच्चे के प्रथम संस्कार को कहा जाता है गूंतर या दस्सोतां

हिमाचल के पूर्वी क्षेत्रों में बच्चे के प्रथम संस्कार को कहा जाता है गूंतर या दस्सोतां

करती हैं। तो वहीं ताकत के लिए महिला को सूंड यानि बादाम, काजू, छुआरे और मूंग की दाल को बारीक पीस कर देसी घी में पकाकर उन्हें लडडू की तरह गोल आकार का बनाकर हर रोज एक खिलाया जाता है। कभी-कभार शराब भी दी जाती है। कुछ दिनों तक यही प्रक्रिया दोरहाई जाती है। उसे तीस दिनों तक गोमूत्र मिले पानी में स्नान करना होता है और नवजात शिशु को भी इसी प्रकार के पानी से स्नान करवाया जाता है। लडक़े के जन्म की बात अपने रिश्तेदारों और मित्रों में मुड़ा बांटकर की जाती है जिसे शक्कर और भुने अनाज से बनाया जाता है। पूर्वी हिमाचल के कुछ भागों में जिसे घर में लड़के का जन्म होता है, स्थानीय मंदिर के गवैये-संगीतकार उस घर के दरवाजे पर शब्द गाते हैं। इन्हें ढाकी और तुरी कहा जाता है तथा इस काम के लिए इन्हें शगुन का एक रूपया भी दिया जाता है।

नवजात शिशु के जन्म की सूचना देने के लिए मामा के घर भिजवाया जाता है द्रुभ और एक रूपया

इस मौके पर लडक़े के पिता को बधाई देने का भी रिवाज है। उसके मित्र व संबंधी द्रुभा के साथ एक रूपया उसे भेंट करते हैं। वह द्रुभ रख लेता है और रूपए को दुगुना करके लौटा देता है। कन्याओं और बच्चों को इस अवसर पर भोज दिया जाता है। नवजात शिशु के जन्म की सूचना देने के लिए द्रुभ और एक रूपया मामा के घर भिजवाया जाता है। इसके बदले मामा घी, मीठा और कपड़े उपहार में नजवात शिशु के लिए भेजता है। हालांकि अब तो काफी हद तक बेटी के जन्म होने पर भी काफी धूमधाम होती है। लेकिन अभी प्रदेश के दूर-दराज के क्षेत्रों में लडक़े के होने पर खास उत्सव मनाया जाता है।

बच्चे के जन्म के दस दिन बाद तक माना जाता है माता का सूतक, यानि अपवित्रता

माता का सूतक यानि अपवित्रता बच्चे के जन्म के दस दिन बाद तक मानी जाती है। इन दस दिनों में निम्रजाति के लोगों को छोडक़र कोई भी बच्चे की मां के हाथ से भोजन अथवा जल ग्रहण नहीं करता। किसी-किसी क्षेत्र में मां को दस दिनों तक किसी भी प्रकार का काम अथवा पूजा-पाठ अथवा रसोई घर जाने की इजाजत नहीं होती। इतना ही नहीं परिवार के किसी भी सदस्य को को पूजा-स्थल पर जाने की अधिकार नहीं होता। अपवित्रता के इन दिनों परिवार का कोई भी सदस्य किसी के घर मंगल कार्यों अथवा अन्य पूजा संबंधी कार्यों में हिस्सा नहीं ले सकता। अपवित्रता के इन दिनों को सूतक या सकोर कहा जाता है

हिमाचल के पूर्वी क्षेत्रों में बच्चे के प्रथम संस्कार को कहा जाता है गूंतर या दस्सोतां

माताएं बच्चे को छह माह तक अथवा एक वर्ष तक दूरस्थ स्थान पर ले जाने अथवा छायादार लम्बे वृक्षों के निकट ले जाने से करती हैं परहेज

हिमाचल के पूर्वी क्षेत्रों में बच्चे के प्रथम संस्कार को गूंतर, गुन्तर या दस्सोतां कहा जाता है और यह बच्चे के जन्म दिन के दसवें दिन से आयोजित किया जाता है। इस दिन मां के सारे वस्त्र धोए जाते हैं और पूरे घर को लीप-पोत कर साफ किया जाता है और परिवार के सभी सदस्यों द्वारा गोमूत्र चखा जाता है तथा माता को भी चम्मच भर पिलाया जाता है। यह कार्य माता की पवित्रता का सूचक होता है। इसके पश्चात मां और शिशु, परिवार के रहने वाले अन्य कमरों में प्रवेश कर सकते हैं। इसके पश्चात मित्रों और सम्बंधियों को भोज के लिए बुलाया जाता है। इस दिन पारिवारिक पुरोहित को बुलाकर बालक की जन्मपत्री तैयार की जाती है। इसके पश्चात बच्चे को कोई शुभ मुहुर्त अथवा पूर्णमासी आने तक बाहर नहीं निकाला जाता। इसके पश्चात बच्चे को बाहर लाया जाता है। कभी-कभी माताएं बच्चे को छह माह तक अथवा एक वर्ष तक दूरस्थ स्थान पर ले जाने अथवा छायादार लम्बे वृक्षों के निकट ले जाने से परहेज करती हैं।

शिशु आठ से दस माह का होने पर चांदी के रूपए से चखाई जाती है खीर

जब बच्चा आठ से दस माह का होता है तो ज्योतिषी द्वारा निश्चित शुभ दिन पर उसे ठोस आहार दिया जाता है। खीर तैयार की जाती है और थोड़ी सी खीर चांदी के रूपए पर रखी जाती है। इसे फिर शिशु की जिह्वा पर रखा जाता है। खीर, रोटी, फल तथा अन्य खाद्य-पदार्थ बच्चे के सम्मुख रखे जाते हैं जिन्हें वह छूता है वह उसके मनपसन्द माने जाते हैं।

तीसरे, पांचवें अथवा सातवें वर्ष में किया जाता है बच्चे का प्रथम मुण्डन

शिशु आठ से दस माह का होने पर चांदी के रूपए से चखाई जाती है खीर

शिशु आठ से दस माह का होने पर चांदी के रूपए से चखाई जाती है खीर

बच्चे का प्रथम मुण्डन, तीसरे, पांचवें अथवा सातवें वर्ष में किया जाता है तथा मध्य और उच्च वर्ग के लोगों के लिए यह विशेष धार्मिक महत्व रखता है। हिमाचल में मुण्डन किसी धार्मिक-स्थल अथवा शिव-मंदिर में करने की प्रथा है। कभी-कभी बालों का एक गुच्छा काटकर गाय के गोबर, दूध और दो सिक्कों के साथ कपड़े के टुकड़े में बांधकर रखा जाता है जिसे बाद में कभी कुलजा के मंदिर या पवित्र नदी में चढ़ाया जाता है और बच्चे के सुखमय जीवन की कामना की जाती है। इस प्रकार बच्चे के प्रथम, पवित्र बालों को अपवित्र होने से बचाया जाता है।

मुंडन संस्कार

मामा की गोद में कटवाए जाते हैं बाल

यह शिशु के तीसरे या पांचवे वर्ष में होता है। शुभ मुहुर्त में नाई बाल काटता है जो कुलदेवी के मंदिर में भी हो सकता है और घर पर भी। सामर्थ्य अनुसार संबंधियों को भोज करवाया जाता है। कई जगह मामा की गोद में बाल कटवाए जाते हैं। बालों को पवित्र जल में प्रवाहित किया जाता है। प्रसिद्ध मंदिरों में भी मुंडन संस्कार किए जाते हैं।

नामकरण संस्कार

किसने, कब और कहां एक व्यक्ति को दूसरे से अलगाने के लिए नाम देने की प्रथा चलाई, इतिहास में इसका विवरण नहीं मिलता। संभवत: नाम देकर अलगाने की आवश्यकता उसी समय पड़ी होगी जबकि संकेत तथा स्वर के उतार-चढ़ाव से काम नहीं चला होगा और भाषा के जन्म के साथ ही इसका आविष्कार हुआ होगा। किसी व्यक्ति का नाम उसके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग होता है। उसका व्यक्तित्व और उससे जुड़े अधिकार और कर्तव्य, नाम के बिना अस्तित्वहीन हो जाएंगे।

इस दृष्टि से हिमाचल प्रदेश में दो प्रथाएं विशेष रूप से मनाई जाती हैं। पहला है बच्चे का नामकरण करना और दूसरा है उसे अपनी जाति के लोगों से परिचित करवाना। एक बच्चे का नामकरण जन्म के दस दिन पश्चात किया जाता है। कुछ लोगों में पुजारी, जन्म-कुण्डली के अनुसार बच्चे के नाम का पहला अक्षर बताता है। सामान्यत: माता-पिता ही पूरा नाम रखते हैं। कभी-कभी इसकी जिम्मेदारी पुजारी को भी सौंप दी जाती है। नामकरण के समय गुड़ और प्रसाद, भूने चावल और गेंहू के दाने जिन्हें मुड़ा कहा जाता है उपस्थित लोगों और संबंधियों में बांटे जाते हैं। लाहौल में नामकरण एक वर्ष के भीतर-भीतर किया जाता है और इस अवसर पर बकरी की बलि देकर बड़ा भोज किया जाता है। निम्र जाति के लोगों में परिवार का मुखिया ही शिशु का नामकरण करता है। कुछ अन्य वर्गों में नामकरण जन्म के महीनों अथवा दिनों के नाम के आधार पर किया जाता है। यही कारण है कि यहां हमें सोमवार के आधार पर सवरू, मंगल के आधार पर मंगलू, बुध के आधार पर बुध, बुधिया, वीरवार के आधार पर बरस्तुस, वीरू या बरस्पति, शुक्रवार के आधार पर शुकरू आदि तथा चैत के आधार पर चैतू, वैशाख के आधार पर वैशाख, जेठ के आधार पर जेठू आदि नाम मिलते हैं। इन लोगों में बच्चों के एक जैसे नाम रखने की प्रथा है। यथा लडक़ों के लिए पांजी, मगगू, धनिया, तियारू तथा चूड़ी, लछी, सुन्नी आदि नाम स्त्रियों के लिए रखे जाते हैं। उच्च जाति के लोगों के नाम प्राय: मिश्रित होते हैं। इनके नामों के पीछे प्राय: राम, लाल, दास या चन्द लगा होता है जबकि राजपूत अपने नाम के पीछे सिंह लगाते हैं। आजकल कुछ लोग पंजाबी प्रत्यय जैसे प्रकाश, कुमार आदि का भी प्रयोग करने लगे हैं। अपने वंशों को एक-दूसरे से अलगाने के लिए कुछ लोग जातिगत नाम अथवा वंशगत नामों का प्रयोग करते हैं। सामान्यत: जातिगत नाम हैं ठाकुर, शर्मा, वर्मा आदि। किन्नौर के लोग अपने नाम के पीछे नेगी लगाते हैं। सातवीं-आठवीं शताब्दी के पश्चात जो राजपूत कबीले हिमाचल में आकर बसे वे अपने कबीलों के नाम राठौर, चौहान, परमार और तोमर आदि शब्द नामों से जुड़े हैं। अन्य जातियों के समान स्तर प्राप्त करने के लिए कुछ निम्र जातियों के लोग अपने नाम के साथ राजपूत अप्रवासियों के उपनाम अपने नामों के साथ जोडऩे लगे हैं और कुछ अपने व्यवसायों से अपना नाम प्राप्त करते हैं उपनामों के विषय में स्थिति और भी अधिक अस्पष्ट है जैसा कि चौहान के सन्दर्भ में। यह उपनाम निम्रलिखित जातियों द्वारा प्रयुक्त होता है। 1. आगंतुक राजपूतों की एक उपजाति के द्वारा 2. खासिया राजपूतों के कबीलों द्वारा जिनका कि कभी हिमाचल के कुछ क्षेत्रों पर राज था। 3. कुछ जनजातियों द्वारा।

व्यक्ति के वंशजों का नाम उसके नाम पर भी रखा जाता है

जिला शिमला में व्यक्ति के वंशजों का नाम उसके नाम पर भी पड़ा जाता है जैसे गंगा राम के बेटों का गांगटा। (टा का अर्थ है पुत्र अथवा वंशज)। कुछ क्षेत्रों में टा के स्थान पर एक शब्द का प्रयोग होता है जैसे बालक राम के पुत्र को अथवा वंशजों को बलेक नाम दिया जाना। कई पीढिय़ों के पश्चात जब किसी के वंशज विभिन्न स्थानों पर बिखर जाते थे तो वे नया उपनाम धारण कर लेते थे। मान लीजिए गांगटा परिवार में कोई राम लाल है। यदि वह अपने परिवार से अलग जा बसता है तो उसके वंशज रामटा कहलाने लगे या रमैक कहलाने लगते हैं। वे ऐसे नए पारिवारिक नामों का प्रयोग करते हैं यथा ठाकुर टेक चन्द गांगटा आदि, जिनसे अपने परिवार के अलग अस्तित्व को बनाए रख सकें।

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