कहीं फसलों के सही न मिलते दाम, तो कहीं जंगली जानवरों का कहर...कहीं आसमान से गिरती आपदा, तो कहीं सूखे की मार...क्या करे किसान

कहीं फसलों के सही न मिलते दाम, तो कहीं जंगली जानवरों का कहर…कहीं आसमान से गिरती आपदा, तो कहीं सूखे की मार…क्या करे “किसान”

  • किसानों की आत्महत्या की वजह प्राकृतिक भी है और कृत्रिम भी

किसानों की आत्महत्या की वजह प्राकृतिक भी है और कृत्रिम भी

किसानों की आत्महत्या की वजह प्राकृतिक भी है और कृत्रिम भी

किसानों की आत्महत्या की वजह प्राकृतिक भी है और कृत्रिम भी। इनमें असमान बारिश, ओलावृष्टि, सिंचाई की दिक्कतों, सूखा और बाढ़ को प्राकृतिक वजह की श्रेणी में रखा गया था तो कीमतें तय करने की नीतियों और विपणन सुविधाओं की कमी को मानव निर्मित वजह बताया गया था, लेकिन इस रिपोर्ट में कहीं भी इस बात का कोई जिक्र नहीं था कि आखिर इस समस्या पर अंकुश कैसे लगाया जा सकता है। जरूरी है सरकारी एजेंसी की रिपोर्ट आंकड़ों के साथ-साथ किसानों की आत्महत्या की वजह पर अंकुश लगाना। विशेषज्ञों की मानें तो प्राकृतिक विपदाओं पर काबू पाना तो किसी के वश में नहीं, लेकिन फसल पैदा होने के बाद उनकी कीमतें तय करने की एक ठोस और पारदर्शी नीति जरूरी है ताकि किसानों को उनकी फसलों की उचित कीमत मिल सके। इसके अलावा विपणन सुविधाओं की बेहतरी और खेती के मौजूदा तौर-तरीकों में आमूल-चूल बदलाव जरूरी हैं। इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों को विभिन्न सहकारी कृषक समितियों के साथ मिल कर इस दिशा में ठोस कदम उठाना होगा। उसी हालत में किसानों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सकेगा।

  • कीमतें तय करना आवश्यक

घाटे का सौदा होने के कारण हर रोज अढाई हजार किसान खेती छोड़ रहे हैं। और तो और देश में अभी किसानों की कोई एक परिभाषा भी नहीं है। वित्तीय योजनाओं में, राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो और पुलिस की नजर में किसान की अलग-अलग परिभाषाएं हैं। ऐसे में किसान हितों से जुड़े लोग सवाल उठा रहे हैं कि कुछ ही समय बाद पेश होने वाले आम बजट में गांव, खेती और किसान को बचाने के लिए क्या पहल होगी।

  • उपज से लागत भी नहीं वसूल हो पाती

विडंबना यह है कि बंपर फसल भी किसानों के लिए जानलेवा होती है और फसलों की बर्बादी भी। कपास और गन्ना जैसी नकदी फसलों के लिए ज्यादा पूंजी की जरूरत पड़ती है। लेकिन उपज से लागत भी नहीं वसूल हो पाती। यही वजह है कि आत्महत्या की सबसे ज्यादा घटनाएं इन नकदी फसलों वाले राज्यों में ही होती हैं। फसल पैदा होने के बाद उनकी खरीद, कीमतें तय करने की कोई ठोस नीति और विपणन सुविधाओं का अभाव किसानों के ताबूत की आखिरी कील साबित होते हैं।

  • 2007 से 2012 के बीच करीब 3.2 करोड़ किसानों ने किया शहरों की ओर  पलायन

उतार-चढ़ाव के बीच कृषि विकास दर रफ्तार नहीं पकड़ रही है। कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 2012-13 में कृषि विकास दर 1.2 प्रतिशत थी जो 2013-14 में बढ़कर 3.7 प्रतिशत हुई और 2014-15 में फिर घटकर 1.1 प्रतिशत पर आ गई। पिछले कई वर्षों में बुवाई के रकबे में 18 प्रतिशत की कमी आई है।

विशेषज्ञों के अनुसार, कई रिपोर्टों को ध्यान से देखने पर कृषि क्षेत्र की बदहाली का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दो दशकों में भारी संख्या में किसान आत्महत्या कर चुके हैं और अधिकतर आत्महत्याओं का कारण कर्ज है, जिसे चुकाने में किसान असमर्थ हैं। जबकि 2007 से 2012 के बीच करीब 3.2 करोड़ गांव वाले जिसमें काफी किसान हैं, शहरों की ओर पलायन कर गए हैं। इनमें से काफी लोग अपनी जमीन और घर-बार बेच कर शहरों में आ गए।

  • 2011 की जनगणना के अनुसार हर रोज ढाई हजार किसान छोड़ रहे खेती

गांव से पलायन करने के बाद किसानों और खेतीहर मजदूरों की स्थिति यह है कि कोई हुनर न होने के कारण उनमें से ज्यादातर को निर्माण क्षेत्र में मजदूरी या दिहाड़ी करनी पड़ती है। 2011 की जनगणना के अनुसार हर रोज ढाई हजार किसान खेती छोड़ रहे हैं। भारी संख्या में गांव से लोगों का पलायन हो रहा है जिसमें से ज्यादातर किसान हैं।

महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में किसानों की आत्महत्या की दर सबसे अधिक

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के पिछले 5 वर्षों के आंकडों के मुताबिक सन् 2009 में 17 हजार, 2010 में 15 हजार, 2011 में 14 हजार, 2012 में 13 हजार और 2013 में 11 हजार से अधिक किसानों ने खेती-बाड़ी से जुड़ी तमाम दुश्वारियों समेत अन्य कारणों से आत्महत्या की राह चुन ली। महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में किसानों की आत्महत्या की दर सबसे अधिक रही है।

किसानों के लिये संकट की बात यह है कि पूरी दुनिया में अनाज के भाव कम हुए हैं ऐसे में उत्पादन घटने के बावजूद भारत में फसल के दाम बढ़ने की उम्मीद नहीं है। अगर उत्पादन घटेगा तो किसानों को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ेगा और यह किसानों की समस्याओं को और बढ़ा सकता है। जिसके चलते साफ है कि देश एक बड़े संकट की तरफ बढ़ रहा है जहां कोई किसानी नहीं करना चाहता लेकिन भोजन सबको चाहिए। इस गम्भीर विषय पर समय रहते केन्द्र और राज्य सरकारों को संजीदा होना होगा और व्यावहारिक रणनीति बनानी होगी।

हालांकि हर राज्य में प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार द्वारा किसानों के लिए बहुत सी योजनाएं और जागरूक अभियान चलाये जा रहे हैं। इसके बावजूद भी काफी किसानों की समस्याएं ज्यूं की त्यूं बनी है। आवश्यक है किसान भी अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हों। यह केवल किसानों की ही जिम्मेवारी नहीं बल्कि अपितु हर नागरिक की जिम्मेवारी है कि अपने देश के हर किसान को खेती करने के लिए प्रोत्साहित करे। उनकी आवश्यकतानुसार मदद अवश्य करे। प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार के सहयोग के साथ-साथ आवश्यक है कि देश के हर व्यक्ति किसानों को सम्मान ओर यथासंभव सहयोग दे। क्योंकि ये किसान ही हैं जो देश के हर बच्चे, बुढ़े, नौजवान के लिए अन्न पैदा कर पेट भरते हैं। किसान हैं तभी हम हम लोग हैं। अन्न पैदा करने वाला किसान ही अगर खुद ही भूख और बोझ से मर जाएं तो वो देश कभी भी उन्नति के स्तंब खड़े नहीं कर सकता। क्योंकि हर देश की सबसे बड़ी ताकत तो किसान ही हैं। अन्न है तो हम हैं, हम हैं तो जीवन हैं, जीवन है तो सब है वरना कुछ नहीं। इसलिए आवश्यक है कि किसानों की महत्ता को समझें उन्हें सहयोग और सम्मान दें।

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